बुधवार, 18 जुलाई 2012

है उनका भी आधा आसमान

मेरे घर काम करने आनेवाली सुषमा के परिवार में पांच सदस्य हैं – मां-बाप, दो बेटियां और एक बेटा, यानि परिवार में दो पुरुष और तीन औरतें। हालांकि काम पांचों करते हैं। दोनों बेटियां मां के साथ मिलकर अहले-सुबह घर के काम-काज निपटाकर ‘चार पैसे’ कमाने निकलती हैं और तब जाकर एक महानगर में किराए के मकान में रहते हुए, अपने खर्च चलाते हुए ये मुमकिन हो पाता है कि सुन्दरवन के किसी गांव में रहनेवाले एक परिवार को पैसा भेजा जा सके। 

सुषमा और उसकी मां जैसी महिलाएं असंगठित यानि अनऑर्गनाइज़्ड वर्क फोर्स का हिस्सा हैं। हो सकता है, इनकी आमदनी देश के सकल घरेलू उत्पाद में कोई सार्थक योगदान नहीं दे रही हों। लेकिन सच तो ये है कि कई बार देश की आत्मा कहे जानेवाले गांवों की अर्थव्यवस्था में ऐसी महिलाएं अहम भूमिका अदा करती हैं। 

ये महिलाएं वर्कफोर्स का एक हिस्सा हैं – एक बेहद उपयोगी और लाभकारी हिस्सा। वर्कफोर्स के दूसरे हिस्से को परिभाषित करना थोड़ा आसान है। संगठित क्षेत्र में अपनी शिक्षा और काबिलियत के दम पर अपना परचम लहराने वाली महिलाएं भारतीय प्रशासनिक सेवा से लेकर सेना में, शिक्षा के क्षेत्र से लेकर सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में, यहां तक कि साहित्य और कला के क्षेत्र में भी अपना नाम रौशन कर रही हैं। सेना से लेकर मेडिकल, हॉस्पिटैलिटी से लेकर बैंकिंग तक उनकी भागीदारी दिखाई देने लगी है। यहां तक कि पुरुषप्रधान क्षेत्र माने जानेवाले रेलवे चालक और ऑटो ड्राईवरी में भी इक्का-दुक्का ही सही, लेकिन महिलाओं की भागीदारी के किस्से यदा-कदा सुनने को मिल जाया करते हैं। हालांकि आंकड़े एकत्रित करनेवाली एजेंसियां भी स्वीकार करती हैं कि कामकाजी होने के तौर पर महिलाओं की भागीदारी को अक्सर वास्तविकता से बहुत कम आंका जाता है। बावजूद इसके, पिछले सालों में पेड वर्कफोर्स यानि वेतनभोगी जनबल में महिलाओं की भागीदारी बड़ी तेज़ी से बढ़ी है।

बढ़ी है आमदनी भी 

मिसाल के तौर पर, सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में कुल वर्कफोर्स का 30% महिलाएं हैं और तनख्वाह, पोज़िशन या पर्क के लिहाज़ से वे अपने पुरुष सहयोगियों से पीछे नहीं हैं। 2001 में भारत में शहरी महिलाओं की औसत मासिक आमदनी साढ़े चार हजार रुपए से कम थी, जो 2010 तक बढ़कर दुगुनी से भी ज्यादा यानि 9,457 रुपए हो गई। महिलाओं की आमदनी में हुई इस वृद्धि का असर सीधे तौर पर परिवार की आमदनी पर पड़ा जो दस सालों में 8,242 रुपए से बढ़कर 16,509 रुपए हो गई। इतना ही नहीं, भारत में प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी (पर कैपिटा इनकम) 16,688 रुपए से बढ़कर 54,825 रुपए हो गई, यानि आमदनी में 228% वृद्धि हुई। 

आमदनी बढ़ने का असर परिवार के रहन-सहन और खर्च करने की ताकत पर भी पड़ा। यहां तक की कृषि और कृषि से जुड़े क्षेत्रों के वर्कफोर्स का बड़ा हिस्सा महिलाएं हैं। बल्कि इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी तकरबीन 90% है। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक खेतों में महिलाएं कुल मजदूरी की 55% से 66% तक की ज़िम्मेदारी निभाती हैं जबकि डेयरी प्रोडक्शन में तो उनकी भागीदारी 94% है। जंगलों से जुड़े छोटे और गृह उद्योगों में 51% महिलाएं कार्यरत हैं और यही बात हस्तकरघा उद्योग के मामले में भी लागू होती है। श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़ ने इस दिशा में आनेवाली कई पीढ़ियों के लिए एक सशक्त उदाहरण पेश किया है। 

बदली है हमारी भी सोच

क्या वजह है कि धीरे धीरे ही सही, लेकिन वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी को ना सिर्फ अहमियत दी जा रही है, बल्कि तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बावजूद उन्हें शिक्षित होने और काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है? दरअसल, सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में धीरे-धीरे ही सही, लेकिन बदलाव आ रहा है। शहरीकरण और भूमंडलीकरण का नतीजा कह लीजिए कि शहरों में डबल इनकम यानि दुगुनी आय की आवश्यकता महसूस होने लगी। बीस साल पहले तक महिलाएं किसी मजबूरी की वजह से काम करने निकला करती थीं। उनके लिए काम भी तय थे – स्टेनोग्राफर, टाइपिस्ट, रिसेप्शनिस्ट या फिर टीचर। वक्त के साथ-साथ नए आयाम खुले और ये स्टीरीयोटाईप भी बदला। कुछ समाज बदला, कुछ समाज की ज़रूरतों के हिसाब से नीतियां और छह महीने की मैटरनिटी लीव और बेहतर वेतन की मांग धीरे-धीरे पूरी होने लगी तो महिलाओं के लिए काम करना थोड़ा-सा आसान हुआ। हालांकि, वर्कप्लस पर बराबरी की मांग अभी भी जोर-शोर से उठाई जाती है, लेकिन हम सफर में आगे तो बढ़े हैं और नए रास्ते भी खुलने लगे हैं।  

शिक्षा ने इस दिशा में एक बड़ी भूमिका निभाई है। 1991 में जहां मात्र 39.29 प्रतिशत महिलाएं साक्षर थीं, वहीं 2001 में महिलाओं की साक्षरता बढ़कर 53.67 बढ़ गई। 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक अब 65.46 प्रतिशत महिलाएं साक्षर हैं और पुरुषों और महिलाओं की साक्षरता की दर के बीच के अंतर में भी गिरावट आई है। ज़ाहिर है, साक्षर महिलाओं ने अपने आस-पास दिखाई देनेवाले काम के अवसरों का भरपूर फायदा उठाया और परिवार तथा समाज की बेहतरी में योगदान दिया। पंचायत में महिलाओं को मिलनेवाले 33 फीसदी आरक्षण ने ना सिर्फ गांवों और पंचायतों में उनके नेतृत्व का मार्ग प्रशस्त किया, बल्कि कई पिछड़े इलाकों से महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उठाए गए कदम की खबरें आईं। कच्छ में उजास रेडियो पर आकर आम-तौर पर दबी-कुचली महिलाओं ने ना सिर्फ अपनी समस्याओं के बारे में खुलकर बात की बल्कि ड्रिप इरिगेशन और बीज की बेहतर किस्मों के बारे में भी सवाल पूछे। 

हालांकि राष्ट्रीय राजनीति में अभी भी महिलाएं बड़ी भूमिका में नहीं आ पाई हैं। ११ फीसदी सांसद और 
मंत्री पदों पर मौजूद १० फीसदी महिलाओं के कंधों पर ही सत्ता के केन्द्र में जाकर आधी आबादी के प्रतिनिधित्व का दारोमदार है।

अंबानी परिवार की बड़ी बहू की छवि से बाहर निकलकर एक सफल उद्योगपति और बिज़नेसवूमैन के रूप में खुद को स्थापित करनेवाली नीता अंबानी कहती हैं, भारतीय महिलाओं को मल्टीटास्किंग में महारत हासिल है। आप भारत के किसी परिवार में चले जाएं, वहां पत्नी, बहू, मां और विभिन्न अन्य भूमिकाएं के अलावा कामकाजी महिला की ज़िम्मेदारी निभानेवाली औरतें मिल जाएंगी।

मैटरनिटी ब्रेक से वापस आनेवाली मांओं को फिर से उनके लायक काम दिलाने के लिए बनाई गई कंपनी फ्लेक्सिमॉम्स अब कई शहरों में अपना नेटवर्क बना चुकी है। इस एक कंपनी से एक लाख से ज्यादा महिलाएं जुड़ी हुई हैं जो इस बात का पुख्ता सबूत हैं कि महिलाओं को भी दुगुनी जिम्मेदारी उठाने से गुरेज नहीं। अपने बच्चों को बड़ा करने के लिए दस साल का ब्रेक लेने के बाद काम पर लौटीं सुरेखा जायसवाल कहती हैं कि काम तो मैं कॉलेज के बाद ही करने लगी थी। शादी के बाद भी घर-परिवार ने प्रोत्साहित ही किया। लेकिन बच्चों को वक्त देना चाहती थी, इसलिए ब्रेक लिया। बच्चे बड़े हो गए तो लगा कि ना सिर्फ परिवार, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था में भी योगदान दिया जाए। और क्यों ना हो? मेरे पास काबिलियत है, प्रतिभा है और अब वक्त भी।
 


  काबिलियत का सही उपयोग

वक्त का सही इस्तेमाल कामकाजी महिलाएं वाकई सही तरीके से करती हैं। और इसके एवज में असंगठित वर्कफोर्स को मिलनेवाले काम के रूप में समाज को वापस किया गया योगदान अनदेखा नहीं किया जा सकता। एक बड़ी ई-कॉमर्स कंपनी की सीईओ पर्ल अक्सर कहा करती हैं, या तो मैं घर से बाहर निकलूं और एक बड़ी कंपनी को और बड़ा बनाऊं, करोड़ों का बिजनेस करूं, अपने साथ-साथ अपने पचास कर्मचारियों के बारे में सोचूं, एक कुक, एक मेड और एक ड्राईवर को नौकरी दूं और उन्हें अच्छी तनख्वाह दूं या फिर घर में रहूं, कुक, मेड और ड्राईवर का काम करूं और बारह-पंद्रह हजार की बचत कर लूं। समझदारी भरा निवेश किसे कहेंगे? ये दोहराने की आवश्यकता नहीं कि वाकई, समझदारी भरा निवेश किसे कहा जाएगा।

ये निवेश परिवार की माली स्थिति को भी बेहतर बनाने में काम आया है। महिलाओं की ओर से आनेवाली पूरक या अतिरिक्त आय ने शहरों में घर और संपत्ति में निवेश करने के रास्ते खोले, बच्चों को बेहतर और बड़े स्कूलों में भेजा गया और ज़रूरतें पूरी होने के बाद शौक को पूरा करने में भी कोताही नहीं बरती गई। द ग्रेट इंडियन मिडल क्लास के उठान के पीछे महिलाओं की ओर से आनेवाली अतिरिक्त आय ने एक बडी भूमिका निभाई। प्रकाश शर्मा मुंबई में एक बड़ी कंपनी में ऊंचे पद पर कार्यरत हैं। एक बेटा है और ऐसी कोई जिम्मेदारी नहीं जो उनकी आमदनी से पूरी नहीं हो सकती। बावजूद इसके प्रकाश अपनी पत्नी ऋतिका को काम करने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। घर में बैठी ऋतिका देश को क्या दे रही है? ये उनकी पहली दलील थी। ऋतिका ने कमाना शुरू किया तो दोनों ने मिलकर और बड़ा घर ले लिया, मां-बाप के बुढ़ापे के लिए पैसे भिजवाए और परिवार के सदस्यों की मदद की। इतनी ही नहीं, अपने पेंशन प्लान और बुढ़ापे के लिए बेहतर तरीके से निवेश किया। प्रकाश कहते हैं, ऐसे देख लो ना कि जो ऋतिका पिछले साल तक कोई टैक्स नहीं अदा कर रही थी, बाहर जाने से भी कतराती थी, मेड नहीं रखना चाहती थी, खर्च नहीं करना चाहती थी, वही ऋतिका अब डेढ़ लाख रुपए टैक्स दे रही है। हमारे परिवार की खर्च करने की कुव्वत बढ़ी है। हमने दो और लोगों को काम पर रखा है। आखिर ये सब कहां जा रहा है? कहीं ना कहीं उसका कमाया हुआ देश की उन्नति में काम तो दे ही रहा है।  

अभी से एक पीढ़ी पहले तक इन्हीं मध्यवर्गीय परिवारों में महिलाओं के लिए काम तय थे। आमतौर पर घर के सारे काम महिलाएं खुद निपटाया करती थीं। कपड़े धोने से लेकर गेहूं की सफाई और कुटाई-पिसाई, कपड़े सिलने और स्वेटर बनाने तक के कामों में इस कदर उलझी होती थीं कि उससे परे कुछ सोचती भी तो रसोई राजनीति के बारे में सोचतीं। सुविधाएं बढ़ी हैं, परिवार छोटे होने लगे हैं और सुविधाओं के साथ-साथ महिलाओं को अब वक्त मिलने लगा है तो ज़रूरी है कि उनकी रचनात्मकता का बेहतर इस्तेमाल हो। घर की चहारदीवारी से बाहर निकलकर कुछ भी रचनात्मक करने से ना सिर्फ उनकी और परिवार की स्थिति में सुधार होगा, बल्कि देश और समाज पर उसका स्पष्ट असर दिखाई देने लगेगा। अधिक से अधिक महिलाएं नीतिनिर्माण और नेतृत्व की दिशा में शामिल हो पाएंगी और समाज में बराबरी का सपना मुमकिन हो पाएगा। खुद को बचाए रखने और बेहतर उपयोग में आने की समझ ने भी कई महिलाओं ने ना सिर्फ अपने लिए, बल्कि अपने देश के लिए भी उन्नति के मार्ग प्रशस्त किए हैं और कई विकसित देश इसकी मिसाल हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में महिलाओं की कुल खरीदशक्ति (परचेसिंग पावर) ३.३ ट्रिलियन डॉलर यानि १७६ खरब रुपए है। निवेश के मामले में भी वहां की महिलाएं पीछे नहीं। तकरीबन आधे स्टॉक्स में महिलाएं ही निवेश करती हैं, यानि नैस्डैक और डाउ जोन्स दरअसल उन्हीं के नाजुक कंधों पर टिका है। अमेरिका के कुल ३५ प्रतिशत बिजनेस की मालकिन भी महिलाएं ही हैं उन्होंने २.७ करोड़ से ज्यादा लोगों को नौकरियां भी दे रखी हैं। अतिशयोक्ति ना होगी अगर हम कहें कि अमेरिका को सुपरपावर बनाने में वहां की महिलाओं का बड़ा हाथ है।

 शिक्षा और हुनर बड़ा हथियार

हालांकि भारत जैसे देश में सोच में आनेवाला ये बदलाव लेकिन सोच में आया ये बदलाव सालों की जद्दोजेहद का नतीजा है। सालों पहले सावित्री बाई फूले और ज्योतिबा फूले, सरला रॉय और आर एस सुब्बाललक्ष्मी ने भारत में महिलाओं की शिक्षा के लिए जो मुहिम चलाई उसकी सफलता अब सामने आ रही है। उनकी कोशिशों का असर है कि हम उस समाज के नागरिक हैं जहां बेटियों में भी वक्त और पैसे का निवेश किया जा रहा है। हालांकि महिलाओं के वर्कफोर्स का सक्रिय हिस्सा होने के लिहाज़ से अभी भी हमें एक लंबा सफर तय करना है।

दस-पंद्रह साल पहले तक ये आम था कि बेटों को बड़े और महंगे स्कूलों में पढ़ाया जाए और बेटियों को किसी तरह ग्रैजुएशन करा दिया जाए। पढ़ाई इतनी ही कराई जाती थी कि उनकी भले घरों में भले लड़कों के साथ शादी हो जाए। लेकिन ये चलन भी बदला है। लड़कों और लड़कों के घरवालों की ओर से पढ़ी-लिखी और कामकाजी लड़कियों की मांग होना अब नई बात नहीं। आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके बेटे के लिए रिश्ता खोजने निकलीं जमशेदपुर की नीलम देवी कहती हैं, वो ज़माना गया जो आईआईटी के लड़कों के लिए मोटा दहेज लेकर सुन्दर-सी लड़की ले आते थे लोग। हमें तो पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए, जो देश-विदेश में बेटे के साथ रह सके। बेटे के सपने को साझा करे, जरूरत पड़ने पर उसके काम में हाथ बंटाए। पैसा-कौड़ी सबकुछ थोड़े होता है? गुण और विद्या सबसे बढ़कर है।

विद्या दी गई तो गुण भी निखरे। दसवीं और बारहवीं के नतीजे प्रमाण हैं कि लड़कियों ने साल-दर-साल अपनी मेहनत और लगन से ना सिर्फ लड़कों की बराबरी की, बल्कि उन्हें पछाड़ा भी। देशभर में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के इम्तिहानों में भी लड़कियों ने बेहतर प्रदर्शन किया। और तो औऱ, हाल ही में आए यूपीएससी के नतीजों से साबित हो गया कि स्कूली शिक्षा से लेकर एन्ट्रेन्स एक्ज़ाम्स और देश की सर्वाधिक प्रतियोगी परीक्षा में भी लड़कियों ने अपनी काबिलियत दिखाई। कमाल की बात तो है कि इस साल की दोनों टॉपर्स देश के उस राज्य की मूल निवासी हैं जहां का सेक्स अनुपात पूरे देश के लिए चिंता का सबब बना हुआ है।

सरकारी सेवा हो या प्राइवेट नौकरियां, अपनी लगन और मेहनत से तमाम जेन्डर डिस्क्रिमिनेशन के बावजूद महिलाओं ने धीरे-धीरे अपने लिए जगह बनाई। भारतीय राजस्व सेवा की अधिकारी रहीं श्रीमती एफ मेन बताती हैं कि आमतौर पर महिलाओं को फायनेंस में निपुण नहीं माना जाता। उन्हें अच्छा एडमिनिस्ट्रेटर माना जाता है, अच्छा मैनेजर भी, लेकिन आंकड़े और रुपए-पैसों का खेल उन्हें समझ में आएगा, इसपर कई बार सवाल उठाए जाते हैं। लेकिन कई महिला अफसरों ने यहां भी अपनी काबिलियत साबित की है। और तो और, कई ऐसे मामलों में कड़े कदम उठाए हैं जो सालों से फाइलों की धूल खा रहे थे। महिला अफसर आमतौर पर अपराईट और ईमानदार होती हैं। उन्हें आसानी से मैनिपुलेट नहीं किया जा सकता।

गौरतलब है कि महिलाओं की स्थिति को लेकर अंतरराष्ट्रीय पत्रिका न्यूज़वीक ने २०११ में १६५ देशों का एक सर्वे कराया। महिलाओं के सशक्तिकरण की स्थिति को लेकर भारत नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका से भी पीछे १४१वें स्थान पर था। भारत वैश्विक ताकत बनने की राह पर है लेकिन इतनी तरक्की और समाज में आए इतने बदलावों के बावजूद ऐसा भी नहीं कि हमने ऐसा माहौल तैयार करने में सफलता हासिल कर ली है जहां महिलाएं पूरी तरह से सशक्त हों। महिलाओं के सशक्तिकरण की राह उनके आर्थिक स्वावलंबन से खुलता है, लेकिन हम अब भी ऐसे माहौल के निर्माण के लिए संघर्षरत हैं जहां कार्यक्षेत्र में पुरुष और महिलाओं को बराबर की हिस्सेदारी मिलती हो। गांवों में महिलाओं की स्थिति तो शोचनीय है ही। वे घरों और खेतों में काम करना अपनी जिम्मेदारी समझती हैं और कई बार सही मजदूरी की मांग भी नहीं करतीं। लेकिन शहरों में, यहां तक कि बड़े दफ्तरों में महिलाओं के लिए एक हितकर माहौल तैयार हो सका है, ऐसा नहीं है। महिलाओं के काम करने के लिहाज से भारत को दुनिया का चौथा सबसे खतरनाक देश बताया गया है। कार्यक्षेत्र में यौन उत्पीड़न और शोषण जैसी समस्याएं भी महिलाओं के लिए अवरोधक का काम करती हैं। ऊपर से देरतक काम करनेवाली महिलाओं की सुरक्षा को लेकर खुद प्रशासन ऊटपटांग सवाल उठाया करता है। इन सारी चुनौतियों के बावजूद महिलाओं ने हार नहीं मानी और घर और बाहर, दोनों मोर्चों को बखूबी संभाला है।

अभी इम्तहां और हैं

जिन राज्यों की आर्थिक स्थिति बेहतर है, वहां महिलाओं की कार्यक्षेत्र में भागीदारी भी कम है। जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक पंजाब में मात्र 4.7 प्रतिशत महिलाएँ घर के बाहर काम करती हैं जबकि हरियाणा में 3.6। जिस दिल्ली के लिए आमतौर पर महिलाओं के काम करने के लिए बाहर निकलने की सबसे असुरक्षित जगह माना जाता है, वहां मात्र 4.3 प्रतिशत काम कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में 5.4 प्रतिशत जबकि बिहार में 16.3 प्रतिशत और उड़ीसा में 26 प्रतिशत महिलाएँ घर के बाहर नौकरी करने या काम करने के लिए जाती हैं। इसमें एक तथ्य जो गौर करने लायक है कि दक्षिण के राज्यों में जहाँ साक्षरता का प्रतिशत ज्यादा है वहाँ पर राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद महिलाएँ घर के बाहर काम या नौकरी के लिए जाती हैं। तमिलनाडु में ये प्रतिशत 39 है जबकि आंध्रप्रदेश में 30.5 और कर्नाटक में 23.7 है।

वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी के लिहाज से भारत दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में से एक है। जूनियर, मिडल और सीनियर, तीनों स्तरों पर भारत में महिलाओं के लिए बहुत जगह बनाए जाने की गुंजाईश है। लेकिन एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में जूनियर से मिडल लेवल के पोज़िशन तक जाते-जाते ४८.०७ प्रतिशत महिलाएं काम छोड़ देती हैं जबकि मिडल लेवल से सीनियर लेवल तक जाते-जाते २९ फीसदी महिलाएं काम छोड़ देती हैं। कॉरोपोरेट जगत में सिर्फ ६ फीसदी महिलाएं ही बोर्ड में शामिल हैं। 

अधिकांश महिलाएं दफ्तर में बढ़ती ज़िम्मेदारियों के साथ काम का बोझ नहीं संभाल पाती और नौकरी छोड़ देती हैं या अपने करियर को लेकर पुरुष की तरह गंभीर नहीं होना चाहती। इस परिस्थिति में बदलाव के लिए परिवार और समाज के स्तर पर बदलाव लाने होंगे, जहां एक कामकाजी महिला को सहयोग के लिए कारगर सपोर्ट सिस्टम तैयार किया जा सके और महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण के रास्ते प्रशस्त किए जा सकें। उम्मीद फिर भी है कि परिवार, समाज और देश को अपनी अर्थव्यवस्था की बेहतरी में महिलाओं के योगदान की कीमत समझ में आएगी और उसके लिए शायद पैमाने भी मुकर्रर हो जाएं। लेकिन महिलाओं को भी अपनी सोच में बदलाव लाना होगा और ये समझना होगा कि सितारों की जगह सिर्फ उनके आंचल में ही नहीं, आसमान में भी है जिन्हें छूकर आने की काबिलियत उनमें है।

4 टिप्‍पणियां:

sonal ने कहा…

badhiyaa aalekh....

संगीता पुरी ने कहा…

काबिलियत तो कभी कम नहीं उनमें ..

पर समाज का दृष्टिकोण बदल रहा है अब ..
परिवर्तन स्‍पष्‍ट दिखाई दे रहा है ..

समग्र गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत अच्छा लेख है। महिलायें हर क्षेत्र में सफ़ल हो रही हैं। हमारी एक फ़ैक्ट्री में गोला-बारूद का काम करना खतरनाक माना जाता था और उसमें महिलाओं को लिया नहीं जाता था। जब लिया जाने लगा तो पता लगा कि वे पुरुष कामगारों से बेहतर कुशलता से काम कर रही हैं।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

विचारपूर्ण आलेख, भला हो उस संस्कृति का कि जिसमें महिलाओं के काम करने के प्रति कोई बन्धन नहीं है।