शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

आजा नच लें (भाग 3, 4, 5)

तीसरा दिन

मां पर अब नाचने का भूत सवार है। गुरुजी ने कहा है, हर सजीव-निर्जीव में संगीत है। संगीत सुनाई देता है, लय दिखाई देती है, बोल समझ में आने लगते हैं - साधना हर चीज़ को मुमकिन बना सकती है।

गुरुजी ने आज एक बहुत अहम बात कही है मां से, "तीन बातों का ख्याल रखना है आपको। पहला, आपमें सोलह साल की लड़की का स्टैमिना नहीं, इसलिए किसी से अपनी तुलना ना करें। दूसरा, अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें। बीमार शरीर को कोई संगीत रुचिकर नहीं लगता। तीसरा और सबसे अहम, आप अपनी खुशी के लिए नाचें। सीखें भी तो अपनी खुशी से। बंदिशों में खुशी से बंधा जाए तो बंदिशें भी संगीतमय हो जाती हैं।"

मां ने तीनों बातें गांठ बांध लीं है। आज का पाठ 'ताल' से शुरू हुआ है।

"आचार्यों और शास्त्रकारों ने समय को बांधकर ताल की परिकल्पना की है। ताल कई प्रकार के होते हैं और उनकी मात्राएं अलग-अलग होती हैं। ताल पर पूरा संगीत निर्भर करता है। ताल को पहचानने के लिए ये जरूरी है कि आप सम और खाली पहचानें।"

गुरुजी तबले पर ताल के बोल बजाते हैं जिन्हें समझना मुश्किल नहीं। मां के मन में चल रहे 1-2-3-4/5-6-7-8/9-10-11-12/13-14-15-16 को गुरुजी ने तीन ताल का नाम दिया है।

सोलह मात्राओं और चार विभागों वाला तीन ताल सबसे सहज माना जाता है। इसलिए भी क्योंकि हमारे दिमाग के लिए वर्गाकृति में आनेवाले बोलों को समझना बहुत मुश्किल नहीं। ताल के पूरे आवर्तन पर मां को हस्तक मुद्राओं के साथ नृत्य करने को कहा जाता है। आज शिखर, मध्य और तल हस्त चक्र करते हुए गलतियां कम हुई हैं। भूमि प्रणाम भी बिना किसी गलती के पूरा हो जाता है।

नाचना मुमकिन है। 'तीन' या 'तीसरे' को लेकर 'तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा' वाली जो अवधारणा थी वो टूट जाती है। तीन ताल ने तीसरी क्लास में हिम्मत दे दी है।

चौथा दिन


मां ज़बर्दस्त आत्मविश्वास के साथ क्लास में आई है। घर में तत्कार का अभ्यास भी किया है। गाड़ी में एफएम पर बजते गानों में बीट पहचाना है, तीन ताल के विभागों में गीत को मन ही मन बांटा भी है। कितना आसान है तीन ताल को समझना!

लेकिन गुरुजी के सवालों का जवाब देना आसान नहीं। उन्होंने बड़ा बेसिक-सा सवाल पूछा है और मां कॉपी में झांकने लगी है। सवाल क्रमलय से जुड़ा है। जवाब मां के पास है नहीं।

"हमारी हर सांस एक लय में चलती है। क्या ये लय दिखाई देती है? लेकिन सांसों की गति से सांसों की लय का पता चलता है। जैसे हमारी सांसें बंधी हैं, वैसे ही लय भी बंधी होती है। जैसे सांसें नज़र आती नहीं, महसूस की जाती है, वैसे ही लय को महसूस किया जाता है। आपको नाचना तबतक नहीं आएगा जबतक आप लय को महसूस नहीं कर सकेंगी।"

मां पर अब दबाव बढ़ गया है। तीन ताल अच्छी तरह समझ लेने के बाद भी तबले पर बजते ठेके पकड़ में ही नहीं आते। तबले में ताल कुछ और है, पैरों की थाप कुछ और बोल निकाल रहे हैं। मां बार-बार रुकती है, बार-बार गलतियां करती है। क्रमलय को समझना मुश्किल है।

गुरुजी बैठ जाने को कहते हैं। तबले की बजाए अब तालियों का सहारा लिया जाता है। हर बोल के बीच पड़ते दम (gap) को सुनाया जाता है। बोल पढ़ते हुए कभी मां की सांस तेज़ चलने लगती है, कभी वो रुक जाती है। सांस लेती है तो बोल आगे निकल पड़ते हैं। सांसों का बोलों से सही सामंजस्य नहीं बन पा रहा है।

''जैसे हमारी सांसें, हमारी धड़कन गिनी हुई है वैसे ही बोल भी गिने हुए हैं। बोलों की ये पूरी रचना, तीन बार पढ़ी जानेवाली ये तिहाई हमारी सांसों की तरह ही एक तय समय के भीतर गिन ली जानी है।"

मां फिर कोशिश करती है। इस बार चक्करदार तिहाई पूरी पढ़ते हुए सांस नहीं फूलती, गलती नहीं होती और मुंह से दाहिने पैर पर गिरती ताली के साथ बोल भी सही निकलते हैं।

मां खड़ी होकर चक्करदार तिहाई पर नाचती है - तिग् दा दिग् दिग्/तिग् दा दिग् दिग्/थेई ता थेई - एक पल्ले को नौ बार करने के बाद ये तिहाई पूरी होती है।

जाते-जाते गुरुजी मां को एक शेर सुनाते हैं - 'उम्र घटती है हरेक सांस नई लेने से/फिर भी इंसां है कि सांस लिए जाता है...'

इस शेर ने अचानक मां को नाचने का, या यूं कहें कि जीने का नया हौसला दे दिया है।


पांचवां दिन

"गुरु अगर आमिल हो, शागिर्द अगर काबिल हो और खुदा अगर शामिल हो तो कला हासिल होती है," मां के क्लास में आते-आते ही गुरुजी ने मां से ये कहा है। मां की आंखों में उतर आए सवालों को देखकर गुरुजी आगे समझाते हैं, ''नाच सीखा देना मेरे अकेले के बस की बात नहीं। इसके लिए दोनों को लगना पड़ता है, और इससे भी बड़ी भूमिका अदा करनेवाली होती है किस्मत, जिसपर ऊपरवाले का बस चलता है। आप सीखना चाहें और मैं सिखाना चाहूं तो भी क्या? अगर ख़ुदा ना खास्ता आपकी तबीयत बिगड़ जाए तो? घर में कोई ज़रूरत आन पड़े तो? आपको दुनियादारी ऐसी उलझाए कि वक्त ना मिल पाए तो?

हे भगवान, गुरुजी को घर में फैले वायरल का पता चल गया है क्या, मां मन ही मन सोचती है।

"लेकिन मेरा और आपका काम मन लगाकर अपने हिस्से की भूमिका निभाते जाना है। आप इसके लिए तैयार हैं ना?"

मां की बांछें खिल जाती है। मां इतनी जल्दी हार नहीं मानना चाहती। कितनी मुश्किल से तो तिहाइयां समझ में आईं हैं! कितनी मुश्किल से एक के बाद एक तिहाई जोड़ते हुए पैर गलती नहीं करते। कितनी मुश्किल से तो उम्मीद जगी है, नाच सिखना इतना भी मुश्किल नहीं।

तिहाई के बाद अब टुकड़ा सीखने की बारी है। पहला टुकड़ा 'नटवरी' है। कृष्ण द्वारा रचाए गए रास के बोलों से बनी रचना सीखने के लिए भादो के महीने के कृष्ण पक्ष से बेहतर मुहूर्त और क्या होगा!

'तत् तत्/तिग् दा दिग् दिग्/तिग् दा दिग् दिग्/तत् तत्/थेई य थेई य क्लान/तत् तत्/तिग् दा दिग् दिग्/तिग् दा दिग् दिग्/तत् तत् थेई' - इतने बोलों पर नाचते-नाचते मां ने कुल 22 बार गलतियां की हैं। इतना कि अब ध्यान नाच की तरफ कम, गलतियां गिनने में ज्यादा जा रहा है।


गलतियों की एक क्वार्टर सेंचुरी पूरी करने के बाद गुरुजी रोककर कहते हैं, ''हम कहते तो हैं कि हम तन-मन-धन से सेवा कर रहे हैं, साधना कर रहे हैं। लेकिन ऐसा होता नहीं है। मन यहां हो नहीं तो आपका आंखें बता देती हैं। और मन यहां हो नहीं तो तन और धन से सेवा किसी काम की होती नहीं।"

मां शर्मिंदा है, कोने में बैठ जाती है और अपने मन से मन का मिज़ाज पूछती है। जवाब मिलता नहीं, मन लगता नहीं, उलझन आज फिर बढ़ गई है।


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