शुक्रवार, 4 मार्च 2011

गीत टूटे-फूटे से...

तुमको बोलो क्यों जाने दूं?
क्यों खोलूं अपना दरवाज़ा,
तन्हाई अंदर आने दूं?

बात चली ही है तो हो जाए,
ज़िद पर हो तुम भी और हम भी
तुम गुस्से में, मैं भी रुस्वा,
किसको किससे टकराने दूं?

तुमपर जो हक़ है वो तो है
अब रूठो या फिर कुछ बोलो
ये झगड़े अपने हिस्से के
ऐसे कैसे सुलझाने दूं?

मुंह फेरा है फिर से तुमने
मैं भी पागल हूं, जाने दो,
आओ माथे पर दूं बोसा
इस गुस्से को घुल जाने दूं।

4 टिप्‍पणियां:

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

छोडो भी ...जाने दो ..वाला स्त्री का मूड ......जो बंधन की मर्यादा को बनाए रखता है . वन्दनीय है यह मूड

मनोज कुमार ने कहा…

तुमपर जो हक़ है वो तो है
अब रूठो या फिर कुछ बोलो
ये झगड़े अपने हिस्से के
ऐसे कैसे सुलझाने दूं?
दिल को छूने वाली पंक्तियां।

Anupama Tripathi ने कहा…

इस गुस्से को घुल जाने दूं

अच्छी रचना है -
सकारात्मक भाव लिए हुए .

Manoj K ने कहा…

मैं भी पागल हूं, जाने दो,
आओ माथे पर दूं बोसा
इस गुस्से को घुल जाने दूं

शायद मैं भी उतना ही पागल हूँ.. 'LET IT GO' IS THE BEST POLICY..